
सुना है मैंने कि इमेनुअल कांट, जर्मनी का एक बहुत प्रज्ञावान पुरुष, रात दस बजे सो जाता था, सुबह चार बजे उठता था। नौकर से कह रखा था, जो उसकी सेवा करता था, कि दस और चार के बीच कुछ भी हो जाए, भूकंप भी आ जाए, तो मुझे मत उठाना।
लेकिन फिर ऐसा हुआ कि इमेनुअल कांट जिस विश्वविद्यालय में शिक्षक था, अध्यापक था, उस विश्वविद्यालय ने तय किया कि उसे चांसलर, कुलपति बना दिया जाए। रात बारह बजे तार आया; नौकर को तार मिला। इतनी खुशी की बात थी। गरीब इमेनुअल कांट, साधारण प्रोफेसर था, चांसलर होने का निर्णय किया विश्वविद्यालय की एकेडेमिक कौंसिल ने! तो नौकर भूल गया यह। सोचा था कि भूकंप के लिए मना किया है। मगर यह तो बात इतनी खुशी की, इतने सुख की है, इसकी तो खबर दे देनी चाहिए।
गया और जाकर इमेनुअल कांट को हिलाया और उठाया, कहा कि शुभकामनाएं करता हूं! आपको विश्वविद्यालय ने कुलपति चुना। इमेनुअल कांट ने आंख खोली, एक चांटा नौकर को मारा और वापस चादर ओढ़कर सो गया।
नौकर तो बहुत हैरान हुआ। बड़ा हैरान हुआ! यह क्या हुआ? भूकंप को मना किया था; यह तो बात ही कुछ और है!
सुबह इमेनुअल कांट ने उठकर पहला तार यूनिवर्सिटी आफिस को किया कि मुझे क्षमा करें, इस पद को मैं स्वीकार न कर सकूंगा, क्योंकि इस पद के कारण मेरे नौकर को भी भ्रांति हुई और कहीं मुझे न हो जाए। इसमें मैं नहीं पडूंगा। इस पद के कारण मेरी कल की नींद खराब हुई, अब और आगे की नींद मैं खराब न करूंगा। इससे झंझटें आएंगी। इससे झंझटों की शुरुआत हो गई। वर्षों से मैं कभी दस और चार के बीच उठा नहीं!
सुबह नौकर से कहा कि तू बिलकुल पागल है! नौकर ने कहा, लेकिन आपने तो कहा था, भूकंप आए तो नहीं उठाना है! कांट ने उसे कहा कि दुख के भी भूकंप होते हैं, सुख के भी भूकंप होते हैं। और जो सुख के भूकंप स्वीकार कर लेता है, उसी के घर दुख के भूकंप आते हैं; अन्यथा कोई कारण नहीं है। शुरुआत हो गई थी। अगर मैं कल खुश होकर तुझे धन्यवाद दे देता, तो मैं गया था! बस, मैंने फिर निमंत्रण दे दिया, दरवाजे खोल दिए दुख के लिए।
उस नौकर ने कहा, लेकिन मुझे आपने चांटा क्यों मारा? कांट ने कहा कि तू समझता होगा, मिठाई बांटूंगा! तो मैंने तुझे खबर दी कि जिसे तू सुख समझकर आ रहा है, उससे भी आखिर में दुख ही आने वाला है, इसलिए मैंने कहा, चांटा अभी ही मार दूं। तुझे भी पता होना चाहिए कि सुख सदा दुख को ही लाता है पीछे, देर-अबेर।
जागें। जब सुख आए, तो उसको देखिए गौर से, भोगिए, समझने की कोशिश करिए। और देखिए कि रोज कैसे सुख दुख में बदलता जा रहा है। और अंत तक यात्रा करिए और देखिए कि सुख से शुरू हुआ था और दुख पर पूरा हुआ! दो-चार-दस सुखों के बीच से गुजरिए समझते हुए। और आप पाएंगे कि आपकी समझ में वह जगह आ गई, वह मैच्योरिटी, वह प्रौढ़ता आपकी समझ में आ गई कि बस अब सुख आता है और जानते हैं कि वह दुख है। इतनी सरलता से जिस दिन आप रहेंगे, उस दिन निष्कंप चित्त पैदा होगा; समझ, अंडरस्टैंडिंग पर खयाल रखिए। जितनी समझ बढ़ती है, जितनी प्रज्ञा बढ़ती है, उतना ही…।
बुद्ध ने तीन शब्द उपयोग किए हैं–प्रज्ञा, शील, समाधि। बुद्ध कहते हैं, जितनी प्रज्ञा बढ़े, जितनी समझ बढ़े, उतना शील रूपांतरित होता है, चरित्र बदलता है। जितना चरित्र रूपांतरित हो, उतनी समाधि निकट आती है।